मंगलवार, 22 जुलाई 2014

शाम सहसा ढल गयी है

धूप ओझल हो गयी है  

जो जहाँ हैं, लौटने को हो रहे तैयार 
काम  का वैसे पड़ा है सामने अंबार 
अब करेंगे, अब करेंगे, हो गयी दुपहर 
सोचने में और गुजरा एक अन्य प्रहर  

डूबने को जा रहा मसि-सिंधु में संसार  
मच्छरों की फ़ौज़ है उन खिड़कियों के  पार 
हैं वहीं  टकरा रहे चमगादड़ों के पर 
गूँजते हैँ हर तरफ बस झींगुरों के स्वर  


ऊँघते उल्लू जमे हैँ शाख पर हर ओर 
उस तरफ से रहा है शावकों का शोर 
दूर तक दिखता नहीं है रौशनी  का श्रोत 
कर सकेंगे राह रौशन ये निरे खद्योत ?  

शाम सहसा ढल गयी है  


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