धूप ओझल हो गयी है ।
जो जहाँ हैं, लौटने को हो रहे तैयार
काम का वैसे पड़ा है सामने अंबार
अब करेंगे, अब करेंगे, हो गयी दुपहर
सोचने में और गुजरा एक अन्य प्रहर ।
डूबने को जा रहा मसि-सिंधु में संसार
मच्छरों की फ़ौज़ है उन खिड़कियों के पार
हैं वहीं टकरा रहे चमगादड़ों के पर
गूँजते हैँ हर तरफ बस झींगुरों के स्वर ।
ऊँघते उल्लू जमे हैँ शाख पर हर ओर
उस तरफ से आ रहा है शावकों का शोर
दूर तक दिखता नहीं है रौशनी का श्रोत
कर सकेंगे राह रौशन ये निरे खद्योत ?
शाम सहसा ढल गयी है ।
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