सोमवार, 22 जुलाई 2019

पिजड़े की चिड़िया

मैं पिजड़े की चिड़िया हूँ
दरवाज़ा मत खोलो
धक्के देकर मुझे
बाहर मत करो
पिंजड़ा है घर मेरा
मत करो मुझे ज़बरन बेघर |
कटोरियों में दाना-पानी
चारो तरफ़ छड़ों की पक्की दीवार
बिल्ली का डर नहीं
ना ही झंझावात
बाज़ नहीं, चील नहीं
सुरक्षित हूँ मैं
मत करो दया
मुझपर ज़बरन, अनर्थक |
क्या करुँगी लेकर खुला आसमान?
उड़ूँगी, यही न?
उड़कर क्या मिलता है?
कहोगे तुम, स्वतंत्रता
लेकिन क्या करुँगी मैं
लेकर स्वतंत्रता,
भटकने की छूट,
ख़तरों से खेलना,
बेमतलब चहकना?
ये सारे चोचले
खुराफ़ात हैं मन के |
रहने दो ख़ुश मुझे
छोटी-सी खोली में
यह खोली मेरी है
आसमां चाहे जितना बड़ा हो
वह औरों का है, मेरा नहीं
मत करो मुक्त मुझे
मत करो मज़बूर
बनने को अज़नबी
जंगली झुंड में |

बुधवार, 12 सितंबर 2018

लौटा बहुत दिनों के बाद

क्यों पीपल की शीतल छाया या धनखेतों की हरियाली
जोड़ती मुहल्लों को राहें टेढ़ी-मेढ़ी चलने वाली
सोंधी सुगंध तेरी मिटटी की क्या जानूँ क्यों खींच रही
क्यों गेरुआ से शीतल बयार आ प्राणों को है सींच रही
पर अर्थ ढूढ़ती ऑंखें मुझको घूर रहीं आते-जाते
तेरी गोदी में आकर के क्या जुर्म किया मैंने माते?


तेरी मिट्टी के कण चिपके मेरे अवचेतन में मन के
आया था शिशु बन कर अबोध कोने में तेरे आंगन के
मिट्टी तेरी, पानी तेरा, सांसें तेरी, आँगन तेरा
चंदा तेरा, सूरज तेरा, तारों से भरा गगन तेरा
निर्बल, नंगा, भूखा-प्यासा मैं नन्हीं जान लिए आया
तुमने ममता के आँचल से ढँक मुझे प्यार से सहलाया|


हर चूज़ा तनिक बड़ा होकर तज नीड हवा हो जाता है
दाना-पानी के लिए जूझता कहाँ कहाँ हो आता है
पर ज्यों ढलती है शाम, अँधेरा बढ़ता, रात बिताने को
चूज़ा घर को लौटता, वहाँ निश्चिन्त निडर सो जाने को
रोज़ी के लिए भटकते जब चूज़े भी हैं घर फिर आते
तेरी गोदी में आकर के क्या जुर्म किया मैंने माते?

बुधवार, 15 अगस्त 2018

स्वतंत्रता-दिवस

आओ, स्वतंत्रता-दिवस मनाएँ, धूम मचाएँ
आज़ादी का दिन याद करें, झंडा फहराएँ|
ऊपर-ऊपर हम त्याग-तपस्या के व्रतधारी
नीचे हैं पल्लवपूर्ण सब्ज़ इच्छाएँ सारी 
उजले चरित्र पर चक्कर रहता 
मँडराता हैं
खादी कपड़ा रेशम से बड़ा कहा जाता है|
सुनकर भाषण रेशमी, पेट की क्षुधा बुझाएँ
चूल्हा छुट्टी पर, बर्तन साफ़, किसे बतलाएँ?
अब कौन यहाँ अँगरेज़ जिसे दोषी ठहराएँ?
किसके विरोध में उठें और फाँसी चढ़ जाएँ?
क्या ख़ुद के पूर्वजन्म के पापों का यह फल है?
सपने सारे ढह गए, हाय, भवितव्य प्रबल है|
आओ, नेताओं की महिमा के गीत सुनाएँ
आओ, स्वतंत्रता-दिवस मनाएँ, धूम मचाएँ|

शनिवार, 11 अगस्त 2018

कलम बड़ी या तलवार


टीचर ने लड़के से पूछा कलम बड़ी है या तलवार
उत्तर देना, और बताना अपने उत्तर का आधार|
लड़का हँसता खड़ा हो गया, बोला, करते आप मज़ाक
जब तलवार निकलती है तो मोल कलम का मिट्टी, ख़ाक|
कलम एक या पाँच, जेब में डरती, करती है आराम
तब तलवार दुश्मनों का क्षण भर में करती काम तमाम|
बिरना बना हुआ है हीरो छुरी-कटारी के बल पर
बीए, एमए करके क्या  लखना के घर पर है छप्पर?
कट्टे की ताक़त पर गुंडे संसद में  भर  जाते हैं
कवि, लिख कविता और लेख, फुटपाथों पर म जाते है|
कलम रिफिल माँगती, किन्तु लेखक की हालत ख़स्ता है
रिफिल बड़ी महँगी आती है, उससे लोहू सस्ता है|
पढ़े-लिखे हैं आप, किन्तु टीचर हैं बिरना के बल पर
लखना कूट रहा है क़िस्मत विना जॉब के बैठा घर|
बाजू का है ज़ोर बड़ा, तलवार बड़ी होती है, सर
क़लम माँगती भीख, भटकती सुबह-शाम दरवाजों पर|

शनिवार, 4 अगस्त 2018

सरस्वती पूजा


इतनी भूख लगी हैअम्मी? आओ मेरे साथ रहो 
कितने बेर मिठाई कितनी? ले आऊँ एक बार कहो|
पेट भरेगा तेरा क्या इन तीन दिनों के राशन से
ऊब नहीं क्या होती तुमको ग़लत स्तोत्र के भाषण से ?
क्या इन तीन दिनों की पूजा, तीन दिनों का यह आह्लाद
हो सकता पर्याप्त मेटने संवत्सर भर का अवसाद ?
है त्यौहार तुम्हारी पूजा, भारत त्यौहारों का देश
तेरी मूर्ति विसर्जन करते ही न बचेगा कुछ अवशेष|
मैं न करूँगा पूजा अर्चन और विसर्जन उसके  बाद
तुझे रखूँगा सदा ह्रदय मैं, नहीं करूँगा तनिक प्रमाद|
न मिले कोई करने बातें, मुझसे करो बात दिन-रात
इतनी कहो कथाएँ लम्बी आ जाये अरुणाभ प्रभात|

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शनिवार, 28 जुलाई 2018

रिश्ता ही क्यों जोड़ गए तुम

मेरी खता बिना बतलाये 
मुझे अकेला छोड़ गए तुम

मुझे भ्रमित कर चौराहे पर
बदल राह किस मोड़ गए तुम

मन था अरमानों का मेला
झटके में सब तोड़ गए तुम

बदला लेकर किस क़ुसूर का
तन मन प्राण मरोड़ गए तुम

इतनी जल्दी जाने की थी
रिश्ता ही क्यों जोड़ गए तुम
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गुरुवार, 12 जुलाई 2018

मज़बूरी


जवान होने के पहले ही 
डलिया, कुदाल और फावड़ा
या फिर भूखे पेट और रोटी के बीच 
किताबों का जमावड़ा 
रोज़गार पाने के लिए कतारों में लगना
टुच्ची नौकरियों की तलाश में भगना
हमारे भविष्य में तो महज़ ख़ानापूरी है|  
एक मर्द होने की बेपर्द मजबूरी है| 

ज़िद उनकी नया घोसला बनाने की
पुराने घर को कतई भूल जाने की 
ख़ातिर-तबज़्ज़ो नये कायम संबंधों की,
माँ-बाप से मिलने पर कठोर प्रतिबंधों की
आना-जाना छोड़िये, याद करना भी गुनाह है
तभी तो आपसे मुहब्बत बेपनाह है| 
गुनाह-ए-बेलज्ज़त, मज़बूर नशाख़ोरी है,
एक मर्द होने की बेपर्द मज़बूरी है| 

आपकी जूतियाँ और झुका हमारा सर,
उसपर भी लगा  हुआ सौ नंबर का डर
मेरा  उफ़ कहना भी रबैया आक्रामक है
आपके हाथों में मोबाईल भयानक है| 
कुछ भी हुआ नहीं, हमें साबित  करना है
जेल जाने से हर वक़्त हमें डरना है
कैसे यकलख़्त मरें, हमें हर-सूं   मरना है
जीते हैं, हक़ीक़त से क्यों यूँ मुकरना है?
लटके हम, आपके हाथों में डोरी है,
एक मर्द होने की बेपर्द मज़बूरी है|